Sunday, July 31, 2011

शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले वतन पर मिटने वालों को यही बाकी निशां होगा

शहीद ऊधमसिंह बलिदान दिवस पर विशेष:31 जुलाई
इन्द्री विजय काम्बोज
शहीदों की चिताओं पर लगेगें हर बरस मेले
वतन पर मिटने वालों को यही बाकी निशां होगा
भारतभूमि ऐसे शूरवीर पुरूषों एवं उच्च आचरण रखने वाले महापुरूषों से भरी पड़ी है जिन्होंने देश के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ऐसे ही एक शूरवीर क्रन्तिकारी  थे शहीद ऊधमसिंह। जिन्होंने अपना सारा जीवन देशसेवा में लगा दिया और अंत में कुर्बानी देकर शहीद हो गये। 13 अप्रैल 1919 को अंग्रेजों ने जलियांवाला बाग में जो खून की होली अंग्रेजों ने खेली थी उसका बदला इस शूरवीर ने उन्हीं अंग्रेजों के देश में जाकर लिया था।

ऊधम सिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को पंजाब के एक निर्धन काम्बोज परिवार में हुआ। बालक ऊधम सिंह अभी दो वर्ष के ही थे कि उनकी माता का देहांत हो गया। उनके पिता टहल सिंह ने गरीबी की दशा में माँ  और बाप दोनों की जिम्मेवारी निभाते हुए बालक ऊधम सिंह का लालन-पालन किया। लेकिन कुदरत का कहर ऐसा बरपा कि कुछ ही समय बाद पिता का साया भी उनके सिर से उठ गया। एक नजदीकी रिश्तेदार चंचल सिंह रागी की सहायता से उन्हें सेंट्रल खालसा यतीमखाने में भर्ती कराया गया। यहां भगवान ने उनके साथ एक बार फि र अन्याय किया। बीमारी ने उनसे उनका बड़ा भाई साधु सिंह भी छीन लिया। विपरीत परिस्थितियों ने बालक ऊधम सिंह की मानसिकता में जुझारू शक्ति को परिपक्व बनाने में तथा भाई की मौत से उभरने में निर्णायक भूमिका निभाई। जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उनके व्यक्तित्व में एक क्रन्तिकारी  भावना भर दी थी और उनकी जुझारू शक्ति को उद्वेलित कर दिया था। उनके मन में बदले की भावना जल रही थी। इस हत्याकांड,शोकाकुल वातावरण तथा राष्ट्रीय अपमान ने ऊधम सिंह की मानसिकता में नरकीय परिवर्तन ला दिया था। इतिहास गवाह है कि ऊधम सिंह को विरासत में जमीन-जायदाद नहीं बल्कि कुदरती कहर,अनाथ जीवन,संघर्ष,अंग्रेजों की गुलामी,उनका जनसमूह से किया गया बर्बरतापूर्ण और घिनौना अत्याचार एवं अमानवीय व्यवहार मिला था। अपने प्रण की पूर्ति के लिए उन्हें गदर पार्टी के रूप में मंच मिला। वतन की आजादी और जलियांवाला बाग हत्याकांड के दोषियों को सजा देने का प्रण लिये युवा ऊधम सिंह कई वर्षों तक विदेश में गतिशील रहा। गवर्नर सर माइकल ओडवायर और जनरल डायर की क्रूरतापूर्ण कार्यवाही को उचित करार दिया गया था। इस कारण ऊधम सिंह ही नहीं बल्कि भारतीय जनमानस के मन में अंग्रेजों के खिलाफ  बदले की भावना धधक रही थी। लेकिन ऊधम सिंह ऐसी जगह पर  बदला लेने की फि राक में था कि उसका कारनामा अंग्रेजी राष्ट्र को झिंझोड़ दे। अपने इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्हें कई वर्षों तक इंतजार करना पड़ा। इस दौरान उन्हें अपने कई नाम भी बदलने पड़े। कभी उदयसिंह बने तो कभी शेरसिंह। कभी फै्र ंक ब्राजील बने तो कभी मोहम्मद सिंह आजाद। 13 अप्रैल 1940 को लंदन के केकस्टन हॉल में ईस्ट इंडिया एसोसिएशन और सेंट्रल एसोसिएशन सोसायटी की ओर से आयोजित होने वाली गोष्ठी में जलियांवाला बाग हत्यांकांड के सभी दोषियों के शामिल होने की सूचना ऊधम सिंह को एक पोस्टर से मिली। इस समय तक जनरल डायर की बीमारी के कारण मौत हो चुकी थी। कार्यक्रम में 150 लोगों के समूह में वह इस तरह रच बस गये कि उन्होंने अपनी पहचान मिटा दी। वास्तव में उन्होंने अपना लिबास अंग्रेजों के लिबास से अभेद कर लिया था। मौका मिलने पर उन्होंने सर माइकल ओडवायर,लॉर्ड जेंटलैड,लॉर्ड लेमिंगटन और फ्रेक ब्राउन पर गोलियां दाग कर उन्हें मौत की नींद सुला दिया। गोली लगते ही जलियावाला  बाग हत्याकांड का सरगना माइकल ओडवायर हमेशा के लिए ढेर हो गया और भारतीयों का बदला पूरा हो गया।
    दूसरों के पदचिह्नों पर चलने की बजाय ऊधमसिंह ने अपना उद्देश्य स्वयं बनाकर स्वयं ही अपनी मंजिल फ तेह की। संकल्प के धनी ऐसे व्यक्ति विरले ही होते हैं जो अपना प्रण पूरा करने के लिए पूरा जीवन दाव पर लगा देते हैं। ऊधम सिंह का यह कारनामा अंगे्रजों द्वारा किये गये उस कुकृत्य का सबक था। ऐसा करने के बाद इस शूरवीर ने शांत भाव और बुलंद हौसले के साथ गिरफतारी दी। लंदन की एक अदालत में इस शूरवीर पर मुकदमा चलाया गया और 31 जुलाई 1940 को
फांसी का फरमान सुनाया। खुशी-खुशी फांसी के फंदे  को चूमने वाला यह महान नायक ऊधमसिंह शारीरिक तौर पर भले ही इस दुनिया में नहीं रहा किंतु वह अनेक भारतीयों के दिलों का बादशाह बन और जीवन भर के लिए अपना नाम अमर कर गया।

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